मैं रात सोने ही जा रहा था, कि तभी मुझे किसी के सिसकने की आवाज़ आई। मैंने इधर-उधर देखा, मुझे कोई नहीं दिखाई दिया। तभी अचानक मेरा ध्यान टेबल पर पड़ी कलम पर गया। मुझे लगा जैसे वह भी रो रही हो। मैंने कहा, “अरे कलम तुम्हारा तो लिखने का काम है। तुम रोने कब से लगी?”
उसके रोने की आवाज़ तेज हो गई और कहने लगी, “क्या लिखूँ? इंसान लिखूँ या हैवान लिखूँ? किसी बेटी की चित्कार लिखूँ, किसी बहन का सम्मान लिखूँ, या कोख में मर रही बेटी की पुकार लिखूँ? क्या लिखूँ? इंसान लिखूँ या हैवान लिखूँ? या जय जवान लिखूँ, जय किसान लिखूँ? मर रहा जवान और किसान लिखूँ, बूढ़े माँ-बाप का सम्मान लिखूँ, या वृद्धाश्रम का श्राप लिखूँ? क्या लिखूँ? इंसान लिखूँ या हैवान लिखूँ?”
