
आज के दौर में सोशल मीडिया एक ऐसा अखाड़ा बन चुका है जहाँ विचारधाराएं टकराती हैं, संवेदनाएं छीलती हैं, और ‘देशभक्ति’ की परिभाषा तय की जाती है—वो भी चंद पोस्टों, हैशटैग्स और ट्रेंड्स के माध्यम से। हाल के घटनाक्रमों में एक बार फिर देखा गया कि कैसे दो धाराओं में बंटा समाज एक-दूसरे को ‘राष्ट्रद्रोही’ और ‘अंधभक्त’ कहने से भी नहीं हिचकता।
एक पक्ष कहता है कि हमें ‘सीजफायर’ जैसे प्रयासों का समर्थन नहीं करना चाहिए और सरकार के हर निर्णय के साथ खड़ा होना ही सच्ची देशभक्ति है। वहीं दूसरा पक्ष, सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने को भी जरूरी समझता है, और उसे आलोचना का अधिकार लोकतंत्र का हिस्सा मानता है।
लेकिन इन दोनों के बीच जो सबसे ज़्यादा अनसुना रह जाता है, वह है – सैनिक और उनके परिवारों की सच्चाई। युद्ध, सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग विषय हो सकता है, लेकिन ज़मीन पर वह दर्द, बलिदान और जिम्मेदारियों का नाम है। सैनिक के लिए युद्ध ‘देश के लिए’ होता है, न कि किसी पार्टी के लिए। और उनका परिवार हर क्षण एक अनकहे भय में जीता है।
अगर सरकार वाकई शांति चाहती थी, तो देश को युद्ध की ओर ले जाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? यदि सैनिकों और उनके परिवारों की चिंता वास्तव में होती, तो उस समय की जाती जब स्थिति को टालना संभव था। दुखद यह है कि कई सैनिकों को वीरगति तो मिली, पर उनका जीवन अधूरी योजना और असमाप्त रणनीति की भेंट चढ़ गया। उन्हें कारगिल युद्ध जैसे गौरवशाली संदर्भों में नहीं गिना जाएगा—क्योंकि इस युद्ध का न कोई स्पष्ट उद्देश्य था, न परिणाम, और न ही अंत की कोई परिभाषित गरिमा।
सैनिकों ने अपना कर्तव्य निभाया, लेकिन अचानक सीजफायर की घोषणा ने उनके बलिदान को अधूरा और असमाप्त बना दिया। जब तक युद्ध चला, देश की भावनाएं उफान पर थीं—लेकिन जब सैनिकों ने अपनी जानें गंवा दीं, तब अचानक शांति की घोषणा ने उनके मनोबल पर गहरी चोट की। यह न केवल रणनीतिक असमंजस को दर्शाता है, बल्कि यह भी कि कैसे सैनिकों के बलिदान की गहराई को हम सामाजिक और राजनीतिक विमर्शों में अक्सर पीछे छोड़ देते हैं।
अगर कभी किसी युद्ध में हमारे सैनिकों के साथ विश्वासघात हुआ हो, तो उसकी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। पर इसका अर्थ यह नहीं कि हम हर बार केवल ‘बदला’ या ‘युद्ध’ की मांग करें। पराक्रम तब सार्थक होता है जब वह विवेक और रणनीति से जुड़ा हो।
देशभक्ति केवल तलवारें लहराने से नहीं आती। वह आती है सैनिक के परिवार को सम्मान देने से, नीतियों की विवेकपूर्ण समीक्षा से, और इस बात को समझने से कि युद्ध कभी भी महज़ भावनाओं से नहीं जीते जाते—बल्कि धैर्य, एकता और गहरी सोच से जीते जाते हैं।
आइए, एक ऐसा समाज बनाएं जहाँ आलोचना को देशद्रोह न समझा जाए, और समर्थन को अंधभक्ति नहीं कहा जाए। देश के लिए सोचने और कुछ करने के तरीके अनेक हो सकते हैं—लेकिन उनमें से कोई भी ‘एकमात्र सत्य’ नहीं हो सकता।
लेखक: सुधांशु यादव, शोधार्थी