
समाज में “मर्दानगी” शब्द का अर्थ समय के साथ इतना बदल गया है कि अब यह केवल लिंग का नहीं, बल्कि सामाजिक अपेक्षाओं का प्रतीक बन चुका है।
बचपन से ही लड़कों को सिखाया जाता है —
“मर्द कभी नहीं रोते”, “कमज़ोरी दिखाना शर्म की बात है।”
परिणामस्वरूप पुरुषों को अपने दर्द, डर और भावनाओं को छिपाकर जीना पड़ता है।
समाज ने “मर्द” शब्द पर इतनी परतें चढ़ा दी हैं कि वह इंसान से अधिक एक भूमिका बन गया है —
जो हर परिस्थिति में मज़बूत दिखे, कभी न टूटे, और हमेशा साबित करता रहे कि वह “सच्चा मर्द” है।
यदि घर न संभाल पाए तो नामर्द,
यदि भावनाएँ व्यक्त करे तो कमज़ोर,
और यदि कोई वादा पूरा न कर सके तो अयोग्य कह दिया जाता है।
अब यह सोच केवल समाज तक सीमित नहीं रही।
रिश्तों में भी “मर्दानगी” का अर्थ भावनाओं से नहीं,
बल्कि अपेक्षाओं की पूर्ति से जोड़ा जाने लगा है।
जब किसी रिश्ते में भावनात्मक या शारीरिक अपेक्षाएँ पूरी हो जाएँ —
तो वही व्यक्ति “अच्छा मर्द” कहलाता है,
पर अगर वही व्यक्ति अपने विचारों को खुलकर न रख पाए,
या हर वादा अपनी परिस्थिति के कारण पूरा न कर सके,
तो उसी क्षण उसे “नामर्द” कह दिया जाता है।
विडंबना यह है कि मर्द को हर बार खुद को साबित करना पड़ता है —
घर में, समाज में, और अब प्रेम व रिश्तों में भी।
वह अगर संवेदनशील है तो कमज़ोर कहलाता है,
और अगर मज़बूत है तो निष्ठुर।
उसके लिए कोई संतुलित परिभाषा बची ही नहीं।
परंतु मर्दानगी का वास्तविक अर्थ शक्ति या कठोरता में नहीं,
बल्कि संवेदना, ईमानदारी और उत्तरदायित्व में है।
जो व्यक्ति अपने डर को स्वीकार कर सके,
दूसरों की भावनाओं को समझ सके,
और हर स्थिति में मानवीय बना रहे —
वही सच्चे अर्थों में “मर्द” है।
मर्दानगी की सच्ची पहचान उसकी ताकत नहीं,
बल्कि उसके चरित्र और करुणा में निहित है।
जब समाज और रिश्ते दोनों यह समझ जाएंगे,
तब “मर्द” और “इंसान” के बीच कोई अंतर नहीं रहेगा।
ऋषी की कलम से ✍️