मर्दानगी की अनसुलझी परिभाषा

समाज में “मर्दानगी” शब्द का अर्थ समय के साथ इतना बदल गया है कि अब यह केवल लिंग का नहीं, बल्कि सामाजिक अपेक्षाओं का प्रतीक बन चुका है।
बचपन से ही लड़कों को सिखाया जाता है —
“मर्द कभी नहीं रोते”, “कमज़ोरी दिखाना शर्म की बात है।”
परिणामस्वरूप पुरुषों को अपने दर्द, डर और भावनाओं को छिपाकर जीना पड़ता है।

समाज ने “मर्द” शब्द पर इतनी परतें चढ़ा दी हैं कि वह इंसान से अधिक एक भूमिका बन गया है —
जो हर परिस्थिति में मज़बूत दिखे, कभी न टूटे, और हमेशा साबित करता रहे कि वह “सच्चा मर्द” है।
यदि घर न संभाल पाए तो नामर्द,
यदि भावनाएँ व्यक्त करे तो कमज़ोर,
और यदि कोई वादा पूरा न कर सके तो अयोग्य कह दिया जाता है।

अब यह सोच केवल समाज तक सीमित नहीं रही।
रिश्तों में भी “मर्दानगी” का अर्थ भावनाओं से नहीं,
बल्कि अपेक्षाओं की पूर्ति से जोड़ा जाने लगा है।
जब किसी रिश्ते में भावनात्मक या शारीरिक अपेक्षाएँ पूरी हो जाएँ —
तो वही व्यक्ति “अच्छा मर्द” कहलाता है,
पर अगर वही व्यक्ति अपने विचारों को खुलकर न रख पाए,
या हर वादा अपनी परिस्थिति के कारण पूरा न कर सके,
तो उसी क्षण उसे “नामर्द” कह दिया जाता है।

विडंबना यह है कि मर्द को हर बार खुद को साबित करना पड़ता है —
घर में, समाज में, और अब प्रेम व रिश्तों में भी।
वह अगर संवेदनशील है तो कमज़ोर कहलाता है,
और अगर मज़बूत है तो निष्ठुर।
उसके लिए कोई संतुलित परिभाषा बची ही नहीं।

परंतु मर्दानगी का वास्तविक अर्थ शक्ति या कठोरता में नहीं,
बल्कि संवेदना, ईमानदारी और उत्तरदायित्व में है।
जो व्यक्ति अपने डर को स्वीकार कर सके,
दूसरों की भावनाओं को समझ सके,
और हर स्थिति में मानवीय बना रहे —
वही सच्चे अर्थों में “मर्द” है।

मर्दानगी की सच्ची पहचान उसकी ताकत नहीं,
बल्कि उसके चरित्र और करुणा में निहित है।
जब समाज और रिश्ते दोनों यह समझ जाएंगे,
तब “मर्द” और “इंसान” के बीच कोई अंतर नहीं रहेगा।

ऋषी की कलम से ✍️

राफेल रिपोर्ट और द वायर प्रकरण: जब सच बोलना ‘अवैध’ हो जाए

क्या एक खबर देश की सुरक्षा से ज़्यादा खतरनाक हो सकती है? और क्या प्रेस को सिर्फ वही खबर छापनी चाहिए जिसे सरकार छापने दे? भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर ऐसे सवाल एक बार फिर सतह पर आ गए हैं — और इस बार केंद्र में है राफेल रिपोर्ट और ‘द वायर’ पोर्टल को ब्लॉक करने की घटना।

6 मई 2025 को द वायर ने एक खबर प्रकाशित की, जिसमें फ्रांसीसी स्रोतों और रिपोर्टों के हवाले से दावा किया गया कि भारत के 3 राफेल विमान हाल ही में सीमा पर संघर्ष के दौरान गिराए गए। खबर में वॉशिंगटन पोस्ट और बीबीसी के तथ्यों को भी शामिल किया गया था, जिन्होंने मलबे की तस्वीरों और विमान कोड के आधार पर इस दावे की आंशिक पुष्टि की। लेकिन कुछ ही घंटों में भारत सरकार के आदेश पर द वायर की वेबसाइट को ब्लॉक कर दिया गया।

खबर हटाई गई, वेबसाइट फिर से चालू हुई — लेकिन यह सवाल कायम है:
क्या भारत में अब तथ्यपरक पत्रकारिता एक अपराध है?

यह पहली बार नहीं है जब प्रेस को चुप कराने की कोशिश की गई हो, लेकिन यह उदाहरण इस बात का प्रतीक बन गया है कि किस तरह से रक्षा, राष्ट्रवाद और ‘राष्ट्रहित’ के नाम पर लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है। राफेल सौदा पहले से ही विवादों में रहा है — इसकी लागत, पारदर्शिता और राजनीतिक दबाव को लेकर पहले भी सवाल उठे हैं। और अब जब युद्धक्षेत्र से राफेल के गिरने की रिपोर्टें आ रही हैं, तब उन्हें छिपाने की कोशिश प्रेस पर सीधा हमला है।

प्रेस की स्वतंत्रता कोई विशेषाधिकार नहीं, एक संवैधानिक अधिकार है।
यह सत्ता की आलोचना करने का नहीं, बल्कि सत्ता को जवाबदेह ठहराने का औजार है।

द वायर की खबर सही थी या गलत, यह बहस का विषय हो सकता है। लेकिन उसका दमन प्रेस परिषद, अदालत या तथ्यों के आधार पर होना चाहिए — न कि सरकारी सेंसरशिप के ज़रिए। जब लोकतंत्र में मीडिया चुप होता है, तो जनता को सिर्फ सत्ता की आवाज़ सुनाई देती है — और वही सबसे बड़ा खतरा है।

यह लेख किसी पार्टी, नेता या विचारधारा को निशाना नहीं बनाता। यह केवल इतना कहता है कि
अगर एक पत्रकार को सच लिखने की सज़ा मिले, तो कल एक नागरिक को सच बोलने की सज़ा भी मिल सकती है।

सत्यापित स्रोत:

1. The Telegraph India – राफेल रिपोर्ट के बाद द वायर ब्लॉक


2. Washington Post – राफेल विमान गिरने की पुष्टि


3. Reuters – पाक का दावा: 5 भारतीय विमान मार गिराए


4. [BBC Verify – राफेल मलबा विश्लेषण]


5. Naval News – भारत का 26 राफेल मरीन सौदा

सुधांशु यादव, शोधार्थी

देशभक्ति की परिभाषा सोशल मीडिया तय नहीं करता

आज के दौर में सोशल मीडिया एक ऐसा अखाड़ा बन चुका है जहाँ विचारधाराएं टकराती हैं, संवेदनाएं छीलती हैं, और ‘देशभक्ति’ की परिभाषा तय की जाती है—वो भी चंद पोस्टों, हैशटैग्स और ट्रेंड्स के माध्यम से। हाल के घटनाक्रमों में एक बार फिर देखा गया कि कैसे दो धाराओं में बंटा समाज एक-दूसरे को ‘राष्ट्रद्रोही’ और ‘अंधभक्त’ कहने से भी नहीं हिचकता।

एक पक्ष कहता है कि हमें ‘सीजफायर’ जैसे प्रयासों का समर्थन नहीं करना चाहिए और सरकार के हर निर्णय के साथ खड़ा होना ही सच्ची देशभक्ति है। वहीं दूसरा पक्ष, सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने को भी जरूरी समझता है, और उसे आलोचना का अधिकार लोकतंत्र का हिस्सा मानता है।

लेकिन इन दोनों के बीच जो सबसे ज़्यादा अनसुना रह जाता है, वह है – सैनिक और उनके परिवारों की सच्चाई। युद्ध, सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग विषय हो सकता है, लेकिन ज़मीन पर वह दर्द, बलिदान और जिम्मेदारियों का नाम है। सैनिक के लिए युद्ध ‘देश के लिए’ होता है, न कि किसी पार्टी के लिए। और उनका परिवार हर क्षण एक अनकहे भय में जीता है।

अगर सरकार वाकई शांति चाहती थी, तो देश को युद्ध की ओर ले जाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? यदि सैनिकों और उनके परिवारों की चिंता वास्तव में होती, तो उस समय की जाती जब स्थिति को टालना संभव था। दुखद यह है कि कई सैनिकों को वीरगति तो मिली, पर उनका जीवन अधूरी योजना और असमाप्त रणनीति की भेंट चढ़ गया। उन्हें कारगिल युद्ध जैसे गौरवशाली संदर्भों में नहीं गिना जाएगा—क्योंकि इस युद्ध का न कोई स्पष्ट उद्देश्य था, न परिणाम, और न ही अंत की कोई परिभाषित गरिमा।

सैनिकों ने अपना कर्तव्य निभाया, लेकिन अचानक सीजफायर की घोषणा ने उनके बलिदान को अधूरा और असमाप्त बना दिया। जब तक युद्ध चला, देश की भावनाएं उफान पर थीं—लेकिन जब सैनिकों ने अपनी जानें गंवा दीं, तब अचानक शांति की घोषणा ने उनके मनोबल पर गहरी चोट की। यह न केवल रणनीतिक असमंजस को दर्शाता है, बल्कि यह भी कि कैसे सैनिकों के बलिदान की गहराई को हम सामाजिक और राजनीतिक विमर्शों में अक्सर पीछे छोड़ देते हैं।

अगर कभी किसी युद्ध में हमारे सैनिकों के साथ विश्वासघात हुआ हो, तो उसकी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। पर इसका अर्थ यह नहीं कि हम हर बार केवल ‘बदला’ या ‘युद्ध’ की मांग करें। पराक्रम तब सार्थक होता है जब वह विवेक और रणनीति से जुड़ा हो।

देशभक्ति केवल तलवारें लहराने से नहीं आती। वह आती है सैनिक के परिवार को सम्मान देने से, नीतियों की विवेकपूर्ण समीक्षा से, और इस बात को समझने से कि युद्ध कभी भी महज़ भावनाओं से नहीं जीते जाते—बल्कि धैर्य, एकता और गहरी सोच से जीते जाते हैं।

आइए, एक ऐसा समाज बनाएं जहाँ आलोचना को देशद्रोह न समझा जाए, और समर्थन को अंधभक्ति नहीं कहा जाए। देश के लिए सोचने और कुछ करने के तरीके अनेक हो सकते हैं—लेकिन उनमें से कोई भी ‘एकमात्र सत्य’ नहीं हो सकता।

लेखक: सुधांशु यादव, शोधार्थी

महात्मा सूरदास जयंती: दृष्टिहीन कवि की अमर दृष्टि और शिक्षा में भक्ति का उजाला


जब दुनिया आँखों से देखती है, तब सूरदास हृदय से देखते थे।
जब लोग रंग, रूप और रूपया देखते हैं, तब सूरदास ने भाव, भक्ति और प्रेम को देखा।
जब समाज किसी अशक्त को असहाय समझता है, तब सूरदास यह सिद्ध कर जाते हैं कि शरीर की सीमाएं आत्मा की ऊंचाई को नहीं रोक सकतीं।
महात्मा सूरदास — एक ऐसा नाम, जो भक्ति साहित्य का गहना है, हिंदी भाषा का गौरव है और भारतीय संस्कृति का अनमोल स्तंभ है।
उनकी जयंती एक अवसर है — उनकी दिव्य दृष्टि, उनकी अमर रचनाओं और उनके जीवन-संदेश को याद करने का, समझने का, और अपने भीतर उतारने का।
सूरदास: एक दृष्टिहीन, जो हमें देखने की कला सिखा गए
महात्मा सूरदास जन्म से नेत्रहीन थे — पर उनकी आत्मा देखती थी, समझती थी और भावनाओं को शब्दों की ऐसी सुंदर माला में पिरोती थी कि उनके शब्द, उनकी कविताएं, आज भी हमारे मन की गहराइयों को छू जाती हैं।
उनका प्रमुख काव्यसंग्रह “सूरसागर” श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं, राधा-कृष्ण के प्रेम और मानव संवेदनाओं का अद्वितीय चित्रण है। एक ऐसा चित्रण, जिसमें केवल भगवान नहीं — बल्कि माता का वात्सल्य, प्रेमिका की पीड़ा, और भक्त का समर्पण भी जीवंत हो उठता है।
शिक्षा का असली अर्थ: सूरदास की दृष्टि में
आज जब हम शिक्षा को केवल डिग्रियों, नौकरियों और प्रतिस्पर्धा तक सीमित कर चुके हैं, तब सूरदास हमें याद दिलाते हैं कि शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य है — मनुष्य को “मानव” बनाना।
सूरदास का साहित्य हमें सिखाता है:
* संवेदना क्या होती है?
* भक्ति केवल पूजा नहीं, जीवन की शैली कैसे हो सकती है?
* नैतिकता, करुणा और विनम्रता का स्थान शिक्षा में क्या होना चाहिए?
उनकी रचनाएं आज भी शिक्षकों के लिए आदर्श पाठ हैं — कैसे भाषा और भावनाओं के माध्यम से बच्चों को जीवन का ज्ञान दिया जा सकता है।
उनकी कविताएं छात्रों को यह सिखाती हैं कि ज्ञान सिर्फ़ सूचनाओं का संग्रह नहीं, बल्कि आत्मा का विकास है।
आज की दुनिया में सूरदास क्यों ज़रूरी हैं?
आज जब दुनिया तेज़ी से दौड़ रही है — आगे निकलने की होड़ में पीछे छूटे लोगों को भूलती जा रही है — तब सूरदास का जीवन हमें ठहरकर सोचने को मजबूर करता है।
क्या हम वाकई शिक्षित हैं, अगर हमारे भीतर सहानुभूति नहीं है?
क्या हम वाकई आगे बढ़ रहे हैं, अगर हम पीछे छूट गए हाथों को थामना भूल गए हैं?
सूरदास दृष्टिहीन होकर भी सब कुछ देख पाए —
हम आँखें रहते हुए भी बहुत कुछ अनदेखा कर जाते हैं।
उनकी जयंती का संदेश
महात्मा सूरदास की जयंती केवल एक श्रद्धांजलि नहीं है,
यह एक आह्वान है —
* संवेदना से भरी शिक्षा का,
* प्रेम से भरी भक्ति का,
* और उस अंधकार में उजाला खोजने की कला का,
   जो सूरदास की पहचान है।
आइए, इस सूरज जैसे संत को नमन करें —
जिन्होंने आँखें न होते हुए भी पूरी दुनिया को देखने का तरीका सिखाया।
जिन्होंने कविता को भक्ति बनाया और भक्ति को शिक्षा।
जय श्रीकृष्ण।
जय महात्मा सूरदास।
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मोह:

अंततः सभी माया के अधीन होते हैं। यह हर किसी का मोह ही है जो अधिकार और स्वामित्व चाहता है। इससे विरक्त होने का भाव आमतौर पर किसी व्यक्ति में तब तक नहीं आता जब तक वह अपने स्वत्व का त्याग न कर दे। बाकी हम सब एक ही नाव में सवार हैं और हमारे कर्म ही इसकी पतवार हैं।

मनोवैज्ञानिक फिलिप जिम्बार्डो की ब्रोकन विंडो थ्योरी आज के सोशल मीडिया पर हो रही लागू।

ब्रोकन विंडो थ्योरी सोशल मीडिया पर होने वाली कई समस्याओं को समझने में मदद करती है। अगर हम सोशल मीडिया पर छोटी-छोटी अव्यवस्थाओं को रोकने के लिए कदम नहीं उठाते हैं, तो यह बड़ी समस्याओं का कारण बन सकता है।

ब्रोकन विंडो थ्योरी को सोशल मीडिया के संदर्भ में बड़ी प्रभावी ढंग से समझा जा सकता है। यह सिद्धांत बताता है कि छोटी-छोटी अव्यवस्थाएं बड़ी समस्याओं का कारण बन सकती हैं। सोशल मीडिया पर, ये छोटी अव्यवस्थाएं हो सकती हैं:

  •   नकारात्मक टिप्पणियां: जब कोई व्यक्ति किसी पोस्ट पर नकारात्मक टिप्पणी करता है, तो यह दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित कर सकता है।
  •   झूठी खबरें: जब झूठी खबरें तेजी से फैलती हैं, तो यह लोगों के बीच अविश्वास और भ्रम पैदा करती है।
  •   असभ्य व्यवहार: सोशल मीडिया पर अक्सर लोग एक-दूसरे के साथ असभ्य व्यवहार करते हैं, जो एक विषैले माहौल को बढ़ावा देता है।
  • ये छोटी-छोटी अव्यवस्थाएं कैसे बड़ी समस्याएं बनती हैं:
  •   ध्रुवीकरण: नकारात्मक टिप्पणियां और झूठी खबरें लोगों को ध्रुवीकृत कर सकती हैं, जिससे समाज में विभाजन बढ़ता है।
  •   हिंसा: सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वाले भाषण और झूठी खबरें वास्तविक दुनिया में हिंसा को भड़का सकती हैं।
  •   मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव: सोशल मीडिया पर लगातार नकारात्मकता और ट्रोल्स का सामना करना लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है।
  • सोशल मीडिया पर ब्रोकन विंडो थ्योरी को रोकने के उपाय:
  •   नकारात्मक टिप्पणियों को हटाना: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को नकारात्मक टिप्पणियों को हटाने के लिए अधिक सक्रिय होना चाहिए।
  • झूठी खबरों को फैलने से रोकना: सोशल मीडिया कंपनियों को झूठी खबरों को फैलने से रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए।
  •   सकारात्मक सामग्री को बढ़ावा देना: सोशल मीडिया पर सकारात्मक सामग्री को बढ़ावा देना चाहिए ताकि नकारात्मकता का मुकाबला किया जा सके।
  • डिजिटल साक्षरता बढ़ाना: लोगों को डिजिटल साक्षरता के बारे में शिक्षित करना चाहिए ताकि वे झूठी खबरों और हेरफेर को पहचान सकें।

ऋषी की कलम से……

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और महान अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह का निधन

ये साल जाते-जाते एक और अनमोल रत्न हमसे छीन ले गया। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और महान अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह का निधन, देश के लिए एक अपूरणीय क्षति है। आपकी सादगी, विनम्रता और दूरदर्शिता के साथ देश की सेवा में आपके अतुलनीय योगदान को इतिहास हमेशा याद रखेगा।

आपकी नेतृत्व क्षमता और नीतियों ने देश को नई दिशा दी। आपके जाने से सिर्फ एक युग का अंत नहीं हुआ, बल्कि एक प्रेरणा का स्रोत भी छिन गया।

आपकी कमी हमेशा खलेगी। विनम्र श्रद्धांजलि।

ऑस्ट्रेलिया_के_फैसले_से_भारत_के_लिए_सीख

ऑस्ट्रेलिया का सोशल मीडिया पर बच्चों की उम्र सीमा बढ़ाने का फैसला भारत के लिए कई महत्वपूर्ण सीख प्रदान करता है:

* बच्चों की डिजिटल सुरक्षा: ऑस्ट्रेलिया का यह फैसला दर्शाता है कि सरकारें बच्चों की डिजिटल सुरक्षा को कितना गंभीरता से ले रही हैं। भारत में भी बच्चों को ऑनलाइन होने वाले खतरों से बचाने के लिए इस तरह के कदम उठाने की आवश्यकता है।
* मानसिक स्वास्थ्य: सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। ऑस्ट्रेलिया का फैसला इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने के लिए प्रेरित करता है।
* शैक्षणिक प्रदर्शन: सोशल मीडिया बच्चों के शैक्षणिक प्रदर्शन को भी प्रभावित कर सकता है। ऑस्ट्रेलिया का फैसला शिक्षाविदों को इस मुद्दे पर ध्यान देने के लिए प्रेरित करता है।
* डिजिटल कल्याण: ऑस्ट्रेलिया का फैसला डिजिटल कल्याण के महत्व को रेखांकित करता है। भारत को भी डिजिटल कल्याण को बढ़ावा देने के लिए नीतियां बनानी चाहिए।
* माता-पिता की भूमिका: ऑस्ट्रेलिया का फैसला माता-पिता की भूमिका को भी उजागर करता है। माता-पिता को अपने बच्चों को सोशल मीडिया के उपयोग के बारे में जागरूक करना चाहिए और उनकी गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए।

भारत के लिए सुझाव:

* उम्र सीमा: भारत में भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के लिए न्यूनतम उम्र सीमा निर्धारित की जा सकती है।
* पेरेंटल कंट्रोल: माता-पिता को अपने बच्चों के स्मार्टफोन पर पेरेंटल कंट्रोल लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
* डिजिटल साक्षरता: स्कूलों में डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि बच्चे सोशल मीडिया का सुरक्षित और जिम्मेदारी से उपयोग करना सीख सकें।
* जागरूकता अभियान: सोशल मीडिया के फायदों और नुकसानों के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाए जाने चाहिए।
* नियम और कानून: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को नियमों और कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए।


ऑस्ट्रेलिया का फैसला भारत के लिए एक प्रेरणा है। भारत को भी बच्चों की डिजिटल सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।

#follower @highlight

शब्दों की शक्ति: लड़कियों को प्रेरित करने का जादू

क्या आपने कभी सोचा है कि लड़कियों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द उनके जीवन को किस तरह आकार देते हैं? हम अक्सर लड़कियों को “प्यारी”, “शांत” और “आकर्षक” कहकर संबोधित करते हैं। ये शब्द उन्हें एक पारंपरिक ढांचे में बांध देते हैं, और उनके आत्मविश्वास व संभावनाओं पर गहरा प्रभाव डालते हैं।

शब्द सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं हैं, वे विचारों और दृष्टिकोण को भी आकार देते हैं। जब हम लड़कियों को बार-बार “कोमल”, “नाजुक” और “सुशील” जैसे शब्दों से परिभाषित करते हैं, तो अनजाने में हम उन्हें कमजोर और दूसरों पर निर्भर महसूस करने की ओर धकेलते हैं। ऐसे शब्द उनके भीतर सीमाएं खींच देते हैं, जिनसे उनका आत्मविश्वास और साहस घट सकता है।

इसके विपरीत, जब हम लड़कियों को “शक्तिशाली”, “सक्षम”, “निडर”, “प्रभावशाली”, “अभिनव” जैसे शब्दों से पुकारते हैं, तो उनका आत्मबल बढ़ता है। ये शब्द न केवल उनकी क्षमताओं को उजागर करते हैं, बल्कि उन्हें बड़े सपने देखने और उन्हें हासिल करने की प्रेरणा भी देते हैं।

शब्दों की यह शक्ति जादुई है। वे न केवल सोचने का तरीका बदलते हैं, बल्कि कार्य करने की क्षमता और दृष्टिकोण को भी प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि हमें अपनी भाषा पर ध्यान देने की आवश्यकता है। लड़कियों को एक संकीर्ण ढांचे में बांधने के बजाय, हमें उन्हें यह महसूस कराना चाहिए कि वे हर चुनौती का सामना कर सकती हैं और अपनी संभावनाओं का पूरा लाभ उठा सकती हैं।

आइए, एक ऐसा समाज बनाएं जहां शब्द प्रेरणा का माध्यम बनें। ऐसा समाज, जहां लड़कियां सिर्फ “कोमल” नहीं बल्कि “सशक्त” भी कहलाएं। जहां उन्हें उनकी शक्ति, क्षमता और संभावनाओं का एहसास कराया जाए। आइए, लड़कियों को उनकी असली उड़ान भरने में मदद करें, ताकि वे न केवल अपने सपनों को साकार कर सकें, बल्कि दूसरों के लिए भी प्रेरणा बनें।

क्योंकि शब्द सिर्फ शब्द नहीं होते, वे एक नई दुनिया बनाने का जादू रखते हैं।